यूनिफॉर्म सिविल कोड का नाम आते ही तलवारें खिंच जाती हैं। दो धड़ों में बंटे हुए लोग दिख जाते हैं। कोई UCC का फायदा बताता है तो कोई इसके नुकसान की चर्चा करता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यूनिफॉर्म सिविल कोड की चर्चा छेड़ी तो जैसे जंगल की आग की तरह यह फैलती गई। लॉ कमीशन द्वारा की जा रही रायशुमारी में लगभग 8.5 लाख लोगों ने अपनी राय दर्ज करा दी है। राजनीति के जानकार तो यह भी मानते हैं कि संभावना है कि मानसून सत्र में या तो इस पर बिल केंद्र सरकार पेश कर देगी या फिर कम से कम चर्चा में तो लाएगी ही। वैसे इन चर्चाओं के बीच यह जानना जरुरी है कि यह पहली बार नहीं हो रहा है। अंग्रेजों ने भी इसकी चर्चा की, लागू नहीं कर सके। आजादी मिलने के बाद बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने भी इसे लागू करना चाहा लेकिन हो नहीं पाया। 1985 से 2017 तक कम से कम चार ऐसे बड़े मामले सुप्रीम कोर्ट में आए हैं, जिसमें कोर्ट ने सरकार से कहा है कि जब संविधान में प्रावधान है तो सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू क्यों नहीं करती? हम आपको यूनिफॉर्म सिविल कोड के बारे में हर डिटेल बता रहे हैं। इसका क्या फायदा और किसे फायदा हो सकता है, वो सबकुछ बता रहे हैं। साथ ही जिस नुकसान की आशंका है, उसके बारे में भी इस स्टोरी में जानिए।
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अंग्रेजों ने भी पेश की थी रिपोर्ट
सबसे पहले भारत में यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात अंग्रेजों के शासन काल में हुई थी। 1835 में ब्रिटिश सरकार ने एक रिपोर्ट पेश की। इसमें क्राइम, एविडेंस और कांट्रैक्ट्स को लेकर देश में एक समान कानून की बात की गई थी। लेकिन अंग्रेज शासक भी इस रिपोर्ट को हू-ब-हू लागू नहीं कर सके। बल्कि इसमें से हिंदू और मुस्लिम पर्सनल लॉ को अलग रखा गया। रिपोर्ट लागू नहीं हुई। साथ ही इस पर चर्चा भी समाप्त हो गई। इसके बाद 1941 में बीएन रॉय की अध्यक्षता में एक कमेटी बैठी, जिसमें हिंदुओं के लिए एक कॉमन सिविल कोड की बात उठी।
संविधान सभा में पेश हुआ था हिंदू कोड बिल
अंग्रेजों के सिविल कोड और 1941 में बीएन रॉय के सिविल कोड के बाद आजाद भारत में भी UCC पर शुरुआती वर्षों में ही चर्चा उठी। 1948 में संविधान सभा के सामने हिंदू कोड बिल पेश हुआ। तब इसका मकसद बताया गया कि हिंदू महिलाओं को बाल विवाह, सती प्रथा, घूंघट तथा गलत रिवाजों से आजादी दिलाने के लिए सिविल कोड जरुरी है। लेकिन तब जनसंघ के श्यामा प्रसाद मुखर्जी, करपात्री महाराज समेत कई नेताओं के विरोध के कारण उस समय फैसला नहीं हुआ। हालांकि फैसले का आधार जरुर बन गया।
चार हिस्सों में बंट गया हिंदू सिविल कोड
संविधान सभा में जब विरोध के बाद हिंदू सिविल कोड लागू नहीं हुआ। तब 10 अगस्त 1951 को बीआर अम्बेडकर ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु को पत्र लिखा। इसके बाद पंडित नेहरु तैयार हो गए। लेकिन राजेंद्र प्रसाद के अलावा कई सांसद भी इसके विरोध में आ गए। मामला एक बार फिर टल गया। लेकिन इसके बाद 1955 और 1956 में हिंदू कोड बिल को चार हिस्सों में बांट कर पेश किया और पारित कराया गया। ये बिल थे
- हिंदू मैरिज एक्ट 1955
- हिंदू सक्सेशन एक्ट 1956
- हिंदू एडॉप्शन एंड मेंटेनेंस एक्ट 1956
- हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्जियनशिप एक्ट, 1956
सुप्रीम कोर्ट देती रही है निर्देश
यूनिफॉर्म सिविल कोड की चर्चा तो संविधान में है लेकिन इस पर कानून नहीं बना। सुप्रीम कोर्ट कानून तो नहीं बना सकता लेकिन कम से कम चार ऐसे बड़े मामले सुप्रीम कोर्ट में पहुंचे हैं, जिस पर फैसला देते वक्त कोर्ट ने सरकार को UCC पर कानून बनाने को कहा है। इसके बावजूद कानून अब तक नहीं बना है। ये मामले हैं
धार्मिक आस्था Vs संवैधानिक व्यवस्था
दरअसल, UCC लागू करने की दिशा में किसी भी सरकार को आगे बढ़ने के लिए एक द्वंद्व से गुजरना होगा। यह द्वंद्व धार्मिक आस्था और संवैधानिक व्यवस्था। दरअसल, संविधान के आर्टिकल 44 में UCC लागू करने की चर्चा है। लेकिन दूसरी ओर संविधान के ही अनुच्छेद 25 देश में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार भी दिया गया है। आशंका यह रही है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने से इन दोनों में क्लैश हो सकता है। आम धारणा ये है कि मुसलमान समुदाय इसको लेकर अधिक प्रभावित हो सकता। लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में हिंदुओं में भी एक बड़ा वर्ग है, जो UCC लागू होने पर प्रभावित होगा।
दक्षिण भारतीयों और आदिवासियों में हो सकती है नाराजगी
यूसीसी लागू होने पर शादी, तलाक, संपत्ति बंटवारा जैसे मुद्दे प्रभावित होंगे। शादी और तलाक को लेकर आम धारणा है कि मुसलमानों के कायदे यूसीसी लागू होने के बाद बदल सकते हैं। अगर एक से अधिक शादियों की बात करें तो मुसलमानों की तरह कई आदिवासी समुदायों में भी यह रिवाज है। आशंका है कि यूसीसी का आदिवासी समुदाय विरोध भी कर सकता है। मेघालय में यह हो भी चुका है। जो एनडीए की सरकार इसे केंद्र के स्तर पर लागू करने की बात कर रही है, उसी एनडीए की सरकार मेघालय में इसके विरोध की बात बार बार द्हरा रही है।
शादियों के तरीके पर दक्षिण भारत में भी हो सकता है विरोध
आमतौर पर यह धारणा बनी है कि यूसीसी लागू हुआ तो यह भी तय हो सकता है कि शादियां किसके साथ नहीं हो सकती। इसमें क्लोज रिलेटिव भी एक पक्ष है। ऐसा नहीं है कि क्लोज रिलेटिव में शादियां सिर्फ मुसलमानों में ही होती है। बल्कि दक्षिण भारत में तो यह परंपरा अधिक फैली हुई है। दक्षिण भारतीय हिंदुओं में भी रिश्तेदारों में शादी का रिवाज है। तमिलनाडु में यह संख्या लगभग 26 प्रतिशत है। 2015-16 के आंकड़े के मुताबिक तमिलनाडु में 10.5 में महिलाएं अपने पिता के साइड के फर्स्ट कजिन से शादी करती हैं। जबकि 13.2 प्रतिशत लड़कियों की शादी उनकी मां के साइड के फर्स्ट कजिन से होती है। चौंकाने वाला एक आंकड़ा यह भी है कि 3.5 प्रतिशत लड़कियां अपने अंकल से शादी करती हैं। ऐसे में यूसीसी में अगर शादियों के लिए कोई पैरामीटर तय होता है, तो उसका विरोध दक्षिण भारत में हो सकता है।
यूसीसी का फायदा किसे
इतना तो साफ है कि यूसीसी लागू होने के बाद किसी को फायदा होगा तो किसी को नुकसान। पर्सनल लॉ के मुताबिक कुछ चीजों में महिलाओं को कम अधिकार हैं। मसलन अभी मुस्लिम और पारसी महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले कम संपत्ति मिलती है। लेकिन यूसीसी लागू होने पर बराबरी का हक मिल सकता है। वहीं कुछ समुदायों में पुरुषों को एक से अधिक शादी करने की छूट है जबकि महिलाओं को नहीं। UCC इस असमानता को भी समाप्त कर सकती है।
यूसीसी लागू करने में क्लैश कहां है
दरअसल, संविधान के आर्टिकल 44 में यूनिफॉर्म सिविल कोड की चर्चा है। देश में दो तरीके के कायदे हैं। इसमें किसी भी अपराध के लिए तो सजा का प्रावधान एक ही है। कुछ मामलों में निर्णय पर्सनल लॉ से होते हैं। यूसीसी लागू होने पर हर निर्णय सभी भारतीयों के लिए समान होगा। जिस तरह की साफगोई यूनिफॉर्म सिविल कोड पर है, क्लैश भी इसी में छुपा है। क्योंकि भारतीय संविधान के ही अनुच्छेद 25 देश में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार सभी को मिलता है। ऐसी स्थिति में यूसीसी का लागू होना धर्म के आधार पर चल रहे कानूनों में बदलाव का प्रयास के तौर पर देखा जा सकता है। साथ ही यह मूल अधिकारों में बदलाव की तरह ट्रीट किया जा सकता है।
संसद में पहले हो चुका है प्रयास
अगर मोदी सरकार मानसून सत्र में यूनिफॉर्म सिविल कोड पर बिल लेकर आती है तो यह पहली बार नहीं होगा जब यह संसद तक पहुंचेगा। इससे पहले भी एक प्रयास हो चुका है। यह प्रयास भी भाजपा के सांसद ने ही किया था। हालांकि वह एक प्राइवेट मेम्बर बिल था। भाजपा के किरोड़ी लाल मीणा ने राज्यसभा में प्राइवेट मेम्बर बिल पेश किया था। हालांकि यह पारित नहीं हुआ। प्राइवेट मेम्बर बिल कानून तभी बन सकता है जब ये दोनों सदनों से पास हो।