रांची: झारखंड विधानसभा चुनाव में एक नई राजनीतिक ताकत का उदय हुआ है, जिसने राज्य की राजनीति को पूरी तरह से प्रभावित किया। नौजवान कुड़मी नेता जयराम महतो की पार्टी, झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा (JLKM), ने इस चुनाव में बीजेपी और AJSU गठबंधन को बुरी तरह से नुकसान पहुंचाया। जयराम महतो की पार्टी भले एक ही सीट पर विजयी रही, लेकिन उनकी पार्टी ने 33 सीटों पर तीसरे स्थान पर रहते हुए चुनाव परिणामों को झटका दिया। गिरिडीह जिले की डुमरी विधानसभा में महतो ने करीब 11 हजार वोटों से दिग्गज नेता बेबी देवी को हराया।
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इसके अलावा, बोकारो जिले की बेरमो विधानसभा में महतो की पार्टी ने बीजेपी के प्रत्याशी रवीन्द्र पांडेय को करीब 61 हजार वोट लाकर उनके जीतने का रास्ता बंद कर दिया, जबकि पांडेय को सिर्फ 58 हजार वोट मिले। चंदनकियारी विधानसभा में भी महतो की पार्टी ने बीजेपी के अमर बाउरी को तीसरे स्थान पर धकेल दिया, जहां बीजेपी को जीत के लिए उम्मीद थी। महतो की पार्टी ने कुल 33 सीटों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, जिनमें से 14 सीटों पर उन्होंने जीत और हार के अंतर को प्रभावित किया। इन सीटों पर महतो के उम्मीदवारों को हारने वाले प्रत्याशियों से भी ज्यादा वोट मिले। खासकर, बीजेपी और AJSU को बड़ा नुकसान हुआ, जहां उनकी सीटें महतो के उम्मीदवारों के कारण हारीं। जैसे कि सिल्ली, रामगढ़ और ईचागढ़ में महतो की पार्टी ने अपनी उपस्थिति से चुनाव परिणामों को पलट दिया।
राज्य के महतो समुदाय का जयराम के साथ जुड़ाव भी एक अहम कारण बनकर उभरा, क्योंकि इस समुदाय की झारखंड में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी है। आजसू, जो पहले कुर्मी समाज में सबसे प्रभावी पार्टी मानी जाती थी, उसे भी जयराम महतो की पार्टी के कारण बड़ा झटका लगा। सिल्ली सीट पर आजसू के सुदेश महतो खुद हार गए, जबकि जयराम महतो की पार्टी के उम्मीदवार ने भारी वोटों से जीत दर्ज की। इस तरह, जयराम महतो की झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा ने इस चुनाव में बीजेपी और AJSU की चुनावी गाथा को पूरी तरह से पलट दिया, जिससे राज्य की राजनीति में एक नई लकीर खींची गई है।
जबकि सुदेश महतो झारखंड के एक प्रमुख राजनीतिक नेता हैं और आजसू (आल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन) पार्टी के संस्थापक और अध्यक्ष हैं। वह झारखंड राज्य के कुड़मी समुदाय से आते हैं और इस समुदाय के बीच उनकी मजबूत पकड़ है। उनकी राजनीतिक यात्रा 1990 के दशक के मध्य में शुरू हुई, जब उन्होंने आल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (AJSU) के तहत छात्रों के अधिकारों के लिए संघर्ष करना शुरू किया। यह संगठन झारखंड राज्य के गठन के लिए आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल था। सुदेश महतो ने 2000 में आल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (AJSU) को एक राजनीतिक पार्टी में बदल लिया। AJSU पार्टी ने राज्य गठन के बाद अपने को मजबूत करने के लिए विभिन्न आंदोलनों में भाग लिया और इसकी सफलता ने महतो को एक महत्वपूर्ण नेता बना दिया।
सुदेश महतो ने झारखंड की राजनीति में अपनी मजबूत पहचान बनाई और 2000 में महज 25 साल की उम्र में झारखंड विधानसभा चुनाव में सिल्ली से चुनाव जीतकर विधायक बने। झारखंड राज्य गठन के बाद उन्हें पथ निर्माण मंत्री के रूप में शामिल किया गया। उन्होंने 29 दिसंबर 2009 को झारखंड राज्य के उप मुख्यमंत्री के रूप में पदभार भी संभाला। 2019 में भी वे सिल्ली के विधायक बने। इससे पहले सुदेश महतो ने 2000, 2005 और 2009 में लगातार तीन बार झारखंड विधानसभा में सिल्ली विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। लेकिन इस बार जयराम महतो ने सुदेश महतो की पार्टी को परास्त कर दिया है। जयराम महतो खुद कुड़मी समुदाय के बड़े नेता बनकर उभरे हैं।
झारखंड में कुड़मी (महतो) राजनीति
झारखंड की राजनीति में आदिवासियों के साथ-साथ कुड़मी (महतो) समुदाय का भी अहम स्थान रहा है। यह प्रभाव 1952 के पहले चुनाव से ही दिखता है, जब राजनीतिक दलों ने टिकट के बंटवारे में जातीय समीकरणों का ख्याल रखा। झारखंड पार्टी के गठन से लेकर आज तक, कुड़मी समुदाय ने राज्य की राजनीतिक दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। 1950 में जब झारखंड पार्टी का गठन हुआ, तो पार्टी प्रमुख जयपाल सिंह ने गैर-आदिवासियों को भी झारखंड आंदोलन से जोड़ने का प्रस्ताव रखा। इस समय से ही कुड़मी समुदाय का राजनीतिक महत्व स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आया। 1952 के पहले विधानसभा चुनाव में, जयपाल सिंह ने कुड़मी समुदाय से जुड़ी महत्वपूर्ण शख्सियतों को पार्टी में शामिल किया। झारखंड पार्टी के टिकट पर जगन्नाथ महतो ने सोनाहातु से चुनाव लड़ा और कांग्रेस के प्रताप चंद्र मित्र को हराया। जगन्नाथ महतो का यह चुनाव जीतना न केवल कुड़मी समुदाय के लिए, बल्कि राज्य की राजनीति के लिए भी ऐतिहासिक था। वे बिहार विधानसभा में पहुंचने वाले पहले कुड़मी विधायक थे।
1957 में, जब सोनाहातु सीट का नाम बदलकर रांची हो गया, जगन्नाथ महतो ने फिर से झारखंड पार्टी से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। हालांकि, 1962 में जब सोनाहातु सीट सुरक्षित हो गई, तो उन्हें सिल्ली से चुनाव लड़ा, लेकिन इस बार वे हार गए। उन्होंने झारखंड पार्टी के कांग्रेस में विलय का विरोध किया था, जिसके कारण पार्टी में उनकी भूमिका कम हो गई। वहीं, 1952 के चुनाव में झारखंड पार्टी ने सिल्ली से विष्णु चरण महतो को प्रत्याशी बनाया था, लेकिन वे चुनाव नहीं जीत सके। विष्णु महतो एक प्रसिद्ध अधिवक्ता थे और उन्होंने झारखंड आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके बाद भी राजनीतिक दलों ने कुड़मी नेताओं को टिकट देना जारी रखा, जैसे कि 1952 के बिहार विधानसभा चुनाव में लोक सेवक संघ ने देवेंद्रनाथ महतो को झालदा से टिकट दिया और वे चुनाव जीतने में सफल रहे।
कुड़मी नेताओं ने बाद के दशकों में भी चुनावी मैदान में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। 1962 के बाद कई कुड़मी नेता चुनाव जीतने में सफल रहे। इनमें से प्रमुख नाम हैं – रामटहल चौधरी (कांके), छत्रु महतो (जरीडीह और गोमिया), घनश्याम महतो (फारवर्ड ब्लाक और कांग्रेस), वन बिहारी महतो (सरायकेला), टेकलाल महतो (मांडू), सुदेश महतो (सिल्ली) और विद्युत महतो (बहरागोड़ा)।
इन नेताओं ने राज्य की राजनीति में अपनी पहचान बनाई और जनसाधारण के बीच कुड़मी समुदाय के प्रभाव को साबित किया। विशेष रूप से, सुदेश महतो जैसे नेताओं ने कुड़मी समाज को सशक्त करने में अहम भूमिका निभाई। 1977 में रामटहल चौधरी को कांके से दो बार जीतने के बाद, सिल्ली से चुनाव लड़ने का अवसर मिला, लेकिन वह हार गए क्योंकि यह सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हो गई थी। विनोद बिहारी महतो, जो झारखंड मुक्ति मोरचा के संस्थापकों में से एक थे, को चुनावी सफलता पाने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा। 1952 में उन्होंने बलियापुर से निर्दलीय चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए। इसके बाद 1957 और 1962 में भी वे चुनावी दौड़ से बाहर रहे। उन्हें 1980 तक इंतजार करना पड़ा, जब उन्होंने आखिरकार चुनाव में जीत हासिल की।