राष्ट्रीय आंदोलन के काल में हजारीबाग क्रांतिकारियों का गढ़ बन गया था। लेकिन यह गढ़ केंद्रीय कारागार था और उस कारागार की काली कोठरी में देश को आजाद करने की मंत्रणा होती थी। डॉ राजेंद्र प्रसाद इस जेल में पहली बार 12 जनवरी 1932 को कैदी बन कर आए तथा दूसरी बार 22 जनवरी 1933 को तथा तीसरी बार 28 जनवरी 1944 से 1 दिसंबर 1944 तक बंद रहे। किस प्रकार कुल 417 दिनों तक राजेंद्र बाबू जेल में बंद रहे।
जेल में निठाला बैठना नहीं था पसंद
डॉ राजेंद्र प्रसाद ने अपनी आत्मकथा में अपनी जेल जीवन का वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है कि जेल में निठाला बैठना उन्हें पसंद नहीं था। अध्ययन के अलावा सूत काटना उनकी दिनचर्या का प्रमुख अंग था। उस समय जेल में डॉ श्रीकृष्ण सिन्हा, बिपिन बिहारी वर्मा, स्वामी सहजानंद सरस्वती, रामवृक्ष बेनीपुरी, राम नारायण सिंह ,कृष्ण बल्लभ सहाय जैसे दिग्गज सेनानी उनके साथ थे। राजेंद्र बाबू को यह अफसोस रहा कि वे स्वामी सहजानंद सरस्वती से गीता नहीं पढ़ सके।
हस्तलिखित पत्रिकाओं का बहुत महत्व
देशरत्न का मानना था कि हस्तलिखित पत्रिकाओं का बहुत महत्व है। उस समय जेल के भीतर बंदी और कैदी पत्रिका निकाली जाती थी। उनका कहना था कि बंदी और कैदी तो आते जाते रहते हैं लेकिन कारागार स्थाई रहता है इसलिए तीसरी हस्तलिखित मासिक पत्रिका कारागार निकाली गई जिसमें उनकी रचना बराबर प्रकाशित होते रही। देशरत्न जिस कक्ष में बंद रहे उसका नामकरण राजेंद्र प्रसाद स्मृति कक्ष रखा गया है। जेल की काली कोठरी उसकी गवाह है। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद का हजारीबाग के कई लोगों से व्यक्तिगत संबंध रहा जिसकी चर्चा उन्होंने आत्मकथा में की है।