एक महीने में छह राज्यों का दौरा और 11 बड़े नेताओं से मुलाकात। यह है बिहार के सीएम नीतीश कुमार का शेड्यूल। 12 अप्रैल 2023 से 11 मई 2023 तक ठीक एक महीना हुआ है और इस दौरान नीतीश कुमार दिल्ली, कोलकाता, लखनऊ, रांची, भुवनेश्वर और मुंबई होकर आए हैं। नीतीश कुमार की ये यात्राएं बिहार सरकार के किसी एजेंडा का हिस्सा नहीं हैं। बल्कि नीतीश कुमार कह रहे हैं वे देश बचाने के लिए और मोदी सरकार को अगले चुनाव में हराने के लिए विपक्षी नेताओं की एकता का यह प्रयास कर रहे हैं। राहुल गांधी के साथ मुलाकात से शुरू हुई यह यात्रा शरद पवार के द्वार समाप्त हुई है। इस बीच ऐसा कुछ हो गया है, जिससे आरोप ये लग सकते हैं कि नीतीश कुमार की यह पूरी कवायद नरेंद्र मोदी और भाजपा को फायदा देने की है। तो क्या सच में ऐसा है? क्या विपक्षी एकता बस ख्याली पुलाव ही है? या फिर नीतीश कुमार सच में विपक्ष के साथ हैं?
BJP की दुखती रग पर प्रशांत किशोर ने रगड़ा ‘बयानों का नमक’
सवाल एक, जवाब नदारद
नीतीश कुमार 12 अप्रैल को दिल्ली के दौरे पर गए तो कांग्रेस नेता राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे से मिले। नीतीश कुमार की मुलाकात दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल से उसी दिन हुई। अगले दिन 13 अप्रैल को नीतीश कुमार लेफ्ट के नेता सीताराम येचुरी और डी राजा से भी मिले। सबके साथ मुस्कुराते पोज में तस्वीरें खिंचाई गईं और लगा जैसे नीतीश कुमार की विपक्षी एकता की उम्मीद को इन सभी का सहारा मिल गया। लेकिन उस यात्रा में भी उस एक सवाल का जवाब नदारद रहा कि एकता बनी तो नेता कौन बनेगा?
ममता ने जगाई आस
नरेंद्र मोदी और भाजपा के सामने 2024 में विपक्षी एकता को लीड करने वाला नेता कौन होगा, इस सवाल का जवाब तो 24 अप्रैल को कोलकाता की उस बैठक में भी नहीं मिला, जिसमें नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के साथ ममता बनर्जी मौजूद थीं। हालांकि ममता बनर्जी ने इतना कह कर आस जरुर जगा दी कि नीतीश कुमार बिहार में पटना की धरती से बदलाव के लिए संयुक्त बैठक करें, आगे की बातें उसमें तय होंगी। लेकिन 24 अप्रैल को ही लखनऊ में अखिलेश यादव के साथ बैठक में फिर वही स्थिति रही। तेजस्वी के साथ नीतीश कुमार यूपी के पूर्व सीएम और समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव से मिले और मुस्कुराते हुए फोटो खिंचाई।
पटनायक नहीं ‘पटे’, मिला पहला झटका
नीतीश कुमार 12 अप्रैल से शुरू किए गए अपने विपक्षी एकता वाले मुहिम में 24 अप्रैल तक पांच बड़ी बैठकों में सात बड़े नेताओं से मिल चुके थे। यहां तक नीतीश कुमार को सबके साथ का आश्वासन जरुर मिला था। लेकिन 9 मई को सब गड़बड़ हो गया। उस दिन नीतीश कुमार ओड़िशा के सीएम नवीन पटनायक से मिलने भुवनेश्वर पहुंचे थे। यहां पहुंच कर नीतीश कुमार ने नवीन पटनायक से साथ अपने जय-वीरू वाली दोस्ती का प्लेटफॉर्म तो सजाने की कोशिश की। लेकिन नवीन पटनायक ने साफ कर दिया कि उनकी जोड़ी जय-वीरु वाली नहीं है, वे नीतीश-नवीन ही हैं। उनके रास्ते अलग ही रहेंगे। यह नीतीश कुमार के लिए पहला झटका था। लेकिन विपक्षी एकता के लिए नीतीश कुमार ने उम्मीदों का दामन अभी छोड़ा नहीं था क्योंकि आगे की टिकट्स भी बुक थीं।
सोरेन से मिला समर्थन
10 मई को नीतीश कुमार रांची पहुंचे। नीयत स्पष्ट थी और सामने स्वागत में खड़े झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन तो साथ देने को जैसे तैयार ही बैठे थे। इस मीटिंग के बाद सीएम हेमंत सोरेन ने कहा कि देश के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में बात हुई है। केंद्र सरकार के खिलाफ विपक्ष की भूमिका में हम सभी है। तो दूसरी ओर नीतीश ने कहा कि हम सभी एकजुट हैं और साथ चलेंगे। देशभर में विपक्ष के अधिकांश लोग साथ हो जाएं, यही प्रयास जारी है। लोकसभा चुनाव का परिणाम देखिएगा, देश का इतिहास बदलेगा।
मुंबई में हो गई सब गड़बड़
दिल्ली से शुरू हुआ नीतीश कुमार का सफर मुंबई में गड़बड़ हो गया या ऐसा भी कह सकते हैं नीतीश कुमार ने गड़बड़ कर दिया। यहां नीतीश कुमार पहले उद्धव ठाकरे से मिले। साफगोई से उद्धव ने नीतीश कुमार के साथ पहले के अपने मतभेदों को भुला जाने का आश्वासन दिया। लेकिन यहां भी विपक्षी एकता के नेता की बात नहीं हुई। इसके बाद नीतीश कुमार पहुंचे शरद पवार के द्वार। यहां नीतीश कुमार ने शरद पवार को विपक्ष का चेहरा बनाए जाने का स्वागत कर दिया। उन्होंने शरद पवार को विपक्षी गठबंधन का चेहरा बनाए जाने के विचार का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि इससे ज्यादा सुखद कुछ नहीं होगा।
नीतीश नहीं तो राहुल क्यों नहीं, पवार क्यों?
शरद पवार पर मेहरबान नीतीश कुमार की अब पूरी पॉलिटिक्स संदेह के घेरे में आ गई है। भाजपा के नेता पहले से कह रहे हैं कि हर बार लोकसभा चुनाव के पहले विपक्षी एकता या तीसरे मोर्चे की कवायद होती है और बाद में सब फुस्स हो जाता है। नीतीश कुमार का शरद पवार को समर्थन देने का विचार भी कुछ इसी से प्रेरित लग रहा है। नीतीश कुमार अगर खुद के लिए दावेदारी पेश करते और प्रयास करते तो यह स्वाभाविक होता। लेकिन नीतीश कुमार तो अपने नाम के साथ पीएम उम्मीदवार शब्द जुड़ते ही भाग खड़े होते हैं या साफ इनकार कर जाते हैं।
ऐसे में सवाल तो यह है कि नीतीश कुमार पीएम उम्मीदवार के लिए शरद पवार के नाम पर कैसे मान गए? सब जानते हैं कि कांग्रेस की पहुंच शरद पवार की एनसीपी या विपक्ष के किसी भी दूसरे दल से अधिक है। तो नीतीश कुमार अगर सच में भाजपा को सत्ता से हटाना चाहते हैं तो पीएम उम्मीदवार के लिए राहुल गांधी या कांग्रेस के किसी दूसरे नेता का नाम क्यों नहीं लेते? सवाल यह भी है कि नीतीश कुमार विपक्षी एकता को बनाना चाहते हैं या तोड़ना चाहते हैं? क्योंकि इतना तो सभी को पता है कि नेतृत्व पर सहमति नहीं होने के कारण ही विपक्षी एकता आज भी सपने की तरह है।
दरअसल, एक राज्य तक सीमित एनसीपी के मुखिया शरद पवार का नाम पीएम उम्मीदवार के लिए आगे कर नीतीश कुमार ने कांग्रेस को ऊहापोह में डाल दिया है। तो क्या अब कांग्रेस विपक्षी एकता के लिए मानेगी? क्या अखिलेश यादव मानेंगे? या ममता बनर्जी मानेंगी? वैसे इन सवालों के जवाब अभी पर्दे के पीछे है। लेकिन इतना तो तय है कि विपक्षी एकता बने या न बने, अब तक नीतीश कुमार की मुहिम को सकारात्मक तौर पर ही देखा जाना चाहिए क्योंकि छह राज्यों में उनके प्रयास को पांच राज्यों से समर्थन मिल चुका है। यानि सक्सेस रेट 80 फीसदी से अधिक का है। हालांकि यह शुरुआती जीत, आखिर तक कायम रहेगी या पहले ही भरभरा जाएगी, यह आने वाला वक्त बताएगा।