राजनीति एक समंदर है और राजनेता चापाकल… समंदर की तरह राजनीति की गहराई का अंदाजा लगाना मुश्किल है तो चापाकल की तरह राजनेता हो गए हैं। जितना जमीन के उपर दिखते हैं, उससे कहीं अधिक जमीन के नीचे। बिहार की राजनीति भी इन दिनों कुछ ऐसे खेल दिखा रही है कि कब कौन भारी दिखने लग जाए, सटीक बता पाना मुश्किल है। कल तक बिहार की सत्ता में बैठे महागठबंधन के दलों को गुमान था कि उन्होंने बिहार में भाजपा को अकेला कर दिया है। गुमान यह भी था कि उनके साथ सात दलों का समर्थन है। लेकिन थोड़ा वक्त ही बीता कि स्थितियां बदलने लगीं। सात दलों का महागठबंधन उस टाइटेनिक की तरह व्यवहार करने लगा है, जो बना तो शानदार था लेकिन अपने पहले सफर में ही डूब गया। अब महागठबंधन की नाव पुरानी टाइटेनिक है या पुरानी गलतियों से सीख ली हुई नई टाइटेनिक, यह आने वाले वक्त में पता चलेगा।
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मांझी सिर्फ झांकी या हो गई पूरी कहानी?
बिहार की राजनीति में पिछले एक साल में बहुत कुछ बदल गया। सत्ता के भागीदार से विपक्ष तक सफर भाजपा के हिस्से आया। तो तेजस्वी व राजद को एकबार फिर नीतीश कुमार की सरपरस्ती में सत्ता की कुर्सी मिली। जदयू ने अपने संगठन में से प्रशांत किशोर के बाद आरसीपी सिंह और उपेंद्र कुशवाहा को भी खो दिया। तो भाजपा ने मुकेश सहनी के सभी विधायकों को अपनी पार्टी में मिलाकर उन्हें बिहार के सभी सदनों से बेदखल कर दिया। अब पूर्व सीएम जीतन राम मांझी भी सरकार का साथ छोड़ चुके हैं तो दूसरी ओर नीतीश कुमार पूरे विपक्ष को एक मेज पर बिठाने की कवायद में जुटे हैं। तो सवाल ये उठता है कि मांझी का जाना सिर्फ एक झांकी भर थी या 2024 के पहले की उलट-पुलट पूरी हो गई?
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हालात बता रहे हैं, अभी विकेट और गिरेंगे
वैसे तो राजनीति में कब कौन किस दरवाजे पर खड़ा मिल जाए, कहना मुश्किल है। लेकिन फिलहाल बिहार की राजनीति में जो हालात हैं, वो बता रहे हैं कि अभी विकेट और गिरेंगे। राजनीति के जानकार बता रहे हैं कि जीतन राम मांझी के बागी तेवरों ने पहले से ही संकेत दिया था कि वे महागठबंधन में खुश नहीं हैं। बाहर जा सकते हैं। महागठबंधन से बाहर उन्हें एनडीए के करीब ही माना जा रहा है। हालांकि इसको लेकर आधिकारिक तौर पर कोई फैसला नहीं हुआ है। लेकिन मांझी की अमित शाह से मुलाकात, संतोष सुमन की भाजपा विधायक से मुलाकात उन्हें एनडीए की तरफ ही मान रही है। जिस तरह मांझी के तेवरों से उनके राह बदलने की कयासबाजी को हवा दी थी, उसी तरह मुकेश सहनी की चुप्पी भी कुछ इशारा कर रही है। एक वक्त में सहनी भाजपा पर नाराज थे, अब चुप हैं। ऐसे में एक और राजनीतिक खिचड़ी पकने की चर्चा चल रही है।
महागठबंधन में स्कोप की कमी, भाजपा में पूरा मौका
बिहार के नेताओं के दल-बदल की आशंका इसलिए भी गहरी हो रही है क्योंकि 2024 में हालात 2019 के बिल्कुल उलटा होंगे। 2019 में भाजपा नेताओं को जदयू के कारण कम सीटें मिलीं थी। इस बार भाजपा के पास अपने लोगों को लोकसभा चुनाव में उतारने के लिए सीटें अधिक होंगी। दूसरी ओर महागठबंधन में राजद-जदयू तो बड़े साझीदार हैं ही, कांग्रेस भी कर्नाटक जीत के बाद कांफिडेंस से भरी दिख रही है। उसका गुजारा भी बिहार में कम सीटों पर नहीं चलने की उम्मीद है। ऐसे में टिकट के लिए ज्यादा पेंच महागठबंधन में है। जबकि भाजपा के पास नेताओं को खुश करने का मौका अधिक है।