भगवान सर्वव्यापी हैं, उनके लिए किसी विशेष रूप या स्थान की आवश्यकता नहीं है। लेकिन भक्तों की सुविधा के लिए भगवान ने अर्चावतार धारण किया है। अर्चावतार का अर्थ है पूजा के लिए प्रकट होना। मूर्तियों को भी अर्चावतार कहा जाता है।
भक्तों की उपासना के लिए मूर्ति में भगवान बसते हैं। भगवान की मूर्तियां पत्थर, लकड़ी, मिट्टी, धातु आदि से बनाई जाती हैं। लेकिन इन मूर्तियों में भगवान की शक्ति और कृपा होती है।
मूर्ति में भगवान कैसे बसते हैं?
भक्तों की भक्ति की शक्ति से भगवान मूर्ति में बसते हैं। जब भक्त सच्चे मन से भगवान की मूर्ति की पूजा करते हैं, तो भगवान उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर मूर्ति में प्रकट होते हैं।
मूर्ति में भगवान के प्रकट होने के कई प्रमाण मिलते हैं। जैसे, व्रज में कई स्थानों पर भगवान स्वयं प्रकट हुए हैं। मीरा बाई की द्वारकाधीश की मूर्ति, करमा बाई की गोपाल की मूर्ति, आदि में भगवान स्वयं प्रकट हुए थे।
मूर्तिपूजा की महिमा
मूर्तिपूजा से भगवान की कृपा प्राप्त होती है। मूर्तिपूजा से भक्तों में भक्ति, प्रेम, और समर्पण की भावना विकसित होती है।
अग्निपुराण में कहा गया है कि मूर्तिपूजा करने वालों को नरक नहीं जाना पड़ता है। श्री एकनाथ जी का कहना है कि कलियुग में मूर्तिपूजा से बढ़कर भक्ति का कोई साधन नहीं है।
कथा
एक बार एक महात्मा जी एक ब्राह्मण के घर मे रहने गए। ब्राह्मण की एक छोटी सी बेटी थी। वह महात्मा जी को पूजा करते देखती थी। एक दिन उसने महात्मा जी से पूछा कि आप किसकी पूजा करते हैं? महात्मा जी ने उसको बताया कि हम भगवान की पूजा करते हैं। बच्ची ने पूछा कि भगवान की पूजा करने से क्या होता है? महात्मा जी ने कहा कि भगवान की पूजा करने से मनचाहा फल मिलता है। बच्ची ने कहा कि मुझे भी भगवान दे दीजिए, मैं भी आपकी तरह पूजा करूंगी। महात्मा जी ने बच्ची की भक्ति देखकर उसे एक शालिग्राम दे दिया और पूजा करने का तरीका बता दिया।
बच्ची ने सच्ची लगन से नित्य अपने भगवान की पूजा करना शुरू कर दिया। वह बिना भोग लगाए कुछ भी नहीं खाती थी और अपने भगवान का क्षणभर का वियोग भी उसे असह्य था।
बड़ी होने पर विवाह के समय वह अपने भगवान को भी साथ लेती गई। दुर्भाग्यवश उसे पति ऐसा मिला जिसे भगवान में विश्वास नहीं था। एक दिन पत्नी को पूजा करते देखकर उसके पति ने मूर्ति को उठा लिया और बोला कि इसे मैं नदी में डाल दूंगा।
कन्या के बहुत अनुनय-विनय करने पर भी पति ने मूर्ति को नदी में फेंक दिया। उसी समय से कन्या अपने भगवान के विरह में दीवानी हो गयी और हर समय यही रट लगाये रहती थी कि मेरे सिलपिले भगवन, मुझ दासी को छोड़कर कहां चले गए, शीघ्र दर्शन दो; आपका वियोग असह्य है।
एक दिन वह भगवान के विरह में पागल होकर उसी नदी के किनारे पहुंच गयी और ऊंचे स्वर में अपने प्रभु को पुकार कर कहने लगी कि शीघ्र आकर दर्शन दो, नहीं तो दासी का प्राणान्त होने जा रहा है।
इस करुण पुकार के साथ ही एक अद्भुत स्वर गूंजा कि मैं आ रहा हूं। उसी समय उस कन्या के समक्ष वही शालिग्रामजी की मूर्ति प्रकट हो गयी। जैसे ही वह शालिग्रामजी को हृदय से लगाने लगी, उस मूर्ति के अंदर से चतुर्भुजरूप में भगवान प्रकट हो गए। भगवान के दिव्य तेज से अन्य सभी लोगों की आंखें बंद हो गयीं।
तभी एक दिव्य गरुणध्वज विमान आया और भगवान अपनी उस सच्ची भक्ता को विमान में बिठलाकर वैकुण्ठलोक को चले गए और भगवान से विमुख उसका पति आंखें फाड़ कर देखता रह गया।
निष्कर्ष
भगवान सर्वव्यापी हैं, लेकिन भक्तों की सुविधा के लिए उन्होंने अर्चावतार धारण किया है